सिद्धि पीठ से कम नहीं है माजरा स्थित कामख्या स्थान




सिद्धि पीठ से कम नहीं है  माजरा स्थित कामख्या स्थान


माँ कामख्या का पिंड
पूर्णिया जिले के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है के नगर प्रखंड के मजरा गावं स्थित कामख्या स्थान  किसी सकती पीठ से कम नहीं है पूर्णिया – धमदाहा मार्ग पर काझा कोठी से 9 किलोमीटर दक्षिण स्थित इस  मंदिर का इतिहास लगभग 800 सौ साल पुराना है इस स्थान को कामरूप कामख्या के समक्ष सिद्धि पीठ के रूप माना जाता है कामख्या स्थान में सालो भर माता के दरबार में कोई मनौती  मांगने आता है तो कोई मनोकामना पूरी होने पर चढ़ावा चढ़ाने श्रधालुओं का ताँता लगा रहता है माघ मास के बसंत पंचमी के बाद आने वाले पहले रविवार को लगने वाले मेला इस मंदिर को
मंदिर का नजारा
खास बना देता है
। यह  दिन  जिनकी मनौती पूरी हो चुकी होती और जिनको मनुती मांगनी है उनके लिए खास होता है । इस दिन माता के दर्शन के लिए भक्तों का ताँता लगा रहता है । मंदिर परिसर में माता कामख्या के साथ – साथ श्यामा – सुन्दरी और मानिक फौजदार का भी मंदिर है ।श्रद्धालु माता के साथ –साथ श्यामा- सुन्दरी  और देवी के शरण मैं आये मानिक फौजदार की भी पूजा अर्चना करते है दूर-दूर से  आये श्रद्धालुओं के भीड़ को देख कर मंदिर की आस्था का अंदाजा चलता है ।
ठाढ़ी व्रत पर लगता है भव्य मेला 
 
माता के दरबार मैं जाते भक्त
ठाढ़ी व्रत छठ व्रत की तरह सूर्योपासना का व्रत है , इसमें भी व्रती छठ की तरह नहाय- खाय , कदुआ भात  और खरना करती है उसके बाद चौथे दिन माता के दर्शन को व्रती आते हैं । इस दिन व्रती सर पर धूपदानी (मिटटी से बना पात्र ,जिसमे दो मुखी और पांच मुखी दोनों तरह के ) हाथ में चवंड़ ,खोइछा मैं फल तथा जल और दूध मिश्रित अर्ध्य पात्र ले कर चलते हैं, रास्ते में पड़ने वाले सभी देवस्थलों मैं जल अर्पित कर माता के दर्शन को पहुँचते हैं । माता की पूजा अर्चना के बाद शाम को भक्त उपवास तोड़ते हैं ।व्रत के अंतिम दिन माता के दरवार मैं मनोकामना मांगने वालों की भी भीड़ जुटती है । कहा जाता हैं की माता के दरवार मैं इस दिन मांगी गयी मनोकामना हमेशा पूरी होती है । आस्था के इस वसन्ती ठाढ़ी महापर्व में न सिर्फ आसपास के जिले के लोग बल्कि दूर – दूर से भक्त आते हैं और मान से मन्नत मांगते है ।
मन्नत मांगने माता के दरबार मैं भक्त
ठाढ़ी व्रत से यह भी मान्यता जुड़ी है की यह मेला उसी वर्ष आयोजित किया जाता है जिस वर्ष मलेमास न हो ,जिस वर्ष मलेमास होता है उस वर्ष मेला का आयोजन नहीं होता है और न ही यह व्रत किया जाता है 

काफी पुराना है मंदिर का इतिहास

मजरा पंचायत स्थित माता कामख्या स्थान मदिर का इतिहास काफी पुराना है । स्थानीय ग्रामीणों का कहना है की माता कामख्या स्थान की स्थापना कामरूप कामख्या सिद्धिदात्री महादेवी भगवती की आज्ञा से सन १३३६  से पहले पुजारी भागीरथ झा ने की थी । कहा जाता है की पुजारी की श्यामा और सुंदरी नाम की दो बेटियाँ थी । तत्कालीन मजरागढ़ के राजा मानिक फौजदार से पुजारी ने कर्ज लिया था । राजा और उसके भाई का आतंक था , उन्होंने कर्ज के बदले पुजारी से उनकी बेटियों से विवाह करने की जिद की थी । बेटियों को मानिक फौजदार के आतंक से बचने के लिए पुजारी कामरूप कामख्या सिद्धिदात्री महादेवी भगवती  की शरण मैं असाम चले गए थे ।

श्यामा-सुन्दरी का मंदिर
पुजारी के पुँज अर्चना से प्रसन्न होकर माता ने कामरूप कामख्या की धुल से माजरा में पुजारी के द्वारा पूजा किये जाने वाले पीपल के जड़ पर कामख्या देवी को स्थापित करने और बलि देने की आज्ञा दी थी । तभी से यह मंदिर विद्यमान है।श्यामा और सुन्दरी से विवाह करने को उतावले मानिक फौजदार और उसके भाई से मुक्ति का उपाय  माता कामख्या ने ही बताया था ।माता की आज्ञा से भागीरथ ने मदिर से पूर्व दिशा में श्यामा और सुन्दरी के विवाह का मंडप बवाया था । मानिक और उसके भाई बारात लेकर पहुंचे भी थे , लेकिन माँ भगवती ने दोनों भाइयों को लडवा दिया ।

 लड़ाई मैं छोटे भाई के मरने के बाद मानिक ने भगवती की मंदिर में क्षमा याचना कर दम तोड़ा ।
उसी बीच श्यामा और सुन्दरी विवाह मंडप सहित जमीन सहित समा गयी । उसी स्थान पर श्यामा – सुन्दरी का मंदिर बना है जबकि माता के मंदिर के उत्तर दिशा मैं मानिक फौजदार का भी मंदिर बनाया गया है । कुछ लोगो का यह भी कहना है की जब यहाँ का पट खुलता है तब असम में कामरूप -कामख्या का मंदिर का पट बंद होता है ।
माणिक फौजदार का मंदिर
 हरेक मंगलवार को चढ़ती है बलि –
माता कामख्या स्थान मैं स्थापना के समय से ही बली चढाने की परंपरा चली आ रही है। बताया जाता है की यदि किसी मंगलवार को माता कामख्या स्थान में बली के लिए छागर नहीं आता है तो मंदिर के संस्थापक पुजारी भागीरथ झा के भगिनाकुल के वर्तमान वंशजों के द्वारा बलिदान की व्यवस्था की जाती है ।

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