प्राचीन पाटलिपुत्र कथा
पटना में पटना साहिब मार्ग पर स्थित
कुम्ह्रार में आप प्राचीन पाटलिपुत्र की झलक देख सकते है . वह भारतीय पुरातत्व
संग्रहालय के द्वारा प्रदर्शनी हाल का निर्माण करवाया गया है , इनता ही नहीं एक
पूरा ग्राउंड ही बना है . पर बेहतर रख रखाव के करा कई चीज का क्षर हो रहा है ,
खुदाई में मिले सामग्री के बारे में पूरी जानकारी देने के लिए कोई व्यवस्था नहीं
है . अगर लोगों के जानकारी लेने है न तो वह खुद से पढ़ कर समझ सकते है .
प्राचीन साहित्य में पाटलिपुत्र के लिए पाटलिग्राम, पाटलिपुर,कुसुमपुर,पुष्पपुर एवं कुसुमध्वज इत्यादि नाम का उल्लेख किया गया है .छठी शताब्दी ई.पू. में यह एक छोटे से ग्राम के रूप में था ,जहाँ अपने निर्वाण से पूर्व भगवान बुद्ध ने एक निर्माणाधीन अवस्था में देखा था . इसका निर्माण मगध नरेश अजातशत्रु के आदेशानुसार वैशाली के लिच्छवी गणराज्य से मगध की सुरक्षा के लिए करवाया गया था .
सामरिक दृष्टिकोण से इसकी भौगोलिक स्थिति से
प्रवावित से प्रभावित होकर अजातशत्रु के पुत्र के उद्यन ने 5 वीं शताब्दी ई.पू. के
मध्य मगध की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र स्थानांतरित कर दिया . तब से लेकर लगभग
एक हजार वर्ष तक शिशुनाग, नन्द मौर्य , शुंग, एवं गुप्त इत्यादि वंशों के शासनकाल
में पाटलिपुत्र ही मगध साम्राज्य की राजधानी थी . शिक्षा ,व्यापर, ,कला, धर्म ,आदि
के क्षेत्र में भी पाटलिपुत्र का नाम था. अर्थशास्त्र के रचियता कौटिल्य (चाणक्य
)तथा महाभाष्य के रचियेता पतंजलि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं .पांचवी शती
के सुप्रसिद्ध यात्री फाह्यान ने पाटलिपुत्र का वर्णन एक वैभवशाली नगर तथा
ख्यातिलब्ध शिक्षाकेंद्र के रूप में था . लगभग ३३० इस्वी पूर्व में चन्द्रगुप्त
मौर्य के शासनकाल में आये सुप्रसिद्ध यूनानी राजदूत मेगास्थनीज की पुस्तक इंडिका में पहली बार पाटलिपुत्र एवं
इसके नगर प्रशासन आदि के बारे में विस्तृत जानकारी मिली थी . लोहानीपुर, ,
बहादुरपुर, संदलपुर, बुलान्दिबाग, कुम्हरार, सहित पटना के कई स्थान पर किये गए
उत्त्खन द्वारा लकड़ी से निर्मित सुरक्षा प्राचीर के अवशेष प्राप्त हुए हैं
.मेगास्थनीज ने चंद्रगुगुप्त मौर्या के काष्ठनिर्मित राज भवन का उल्लेख भी किया है
जो ईरान के सूसा व एकबतना महलों से भी अधिक सुन्दर और भव्य था . कुम्हरार के
उत्त्खनन द्वारा चमकदार एकाश्मक स्तंभों वाले मौर्यकालीन सभागार का भग्नावेश की
जानकारी मिली है . जो आद्कुनिक ईरान के परसोपोलिस महल के जैसा मन जाता है .
कुम्हरार स्थित स्तंभों से युक्त
मौर्कालिन सभागार के भाग्नावेसेश १९१२-१५ मकीं लोगों के स्समने आया . इस उत्त्खनन
में ७२ स्तम्भ अनावृत्त किये गए, १९५१ से ५५ के बीच ८ और स्तंभों का पता चला , जिसे
८० स्तंभों वाला सभागार के नाम से जाना जाता था . दक्षिण की और से प्रवेश द्वार
वाले इस महाकक्ष में पूर्व से पश्चिम आठ –
आठ स्त्मभों की दस- दस पंक्तिया थी. इनके बीच का अन्तराल १५ फूट का मन गया है
.सभागार की छत और फर्श लकड़ी से निर्मित थी .दीवाल नहीं मिलने के कारन से लागता है
की यह खुला मंडप होगा . छत को ईटों से आच्छादित कर के ऊपर से चूने का प्लास्टर
किया गया था . प्रवेशद्वार के निकट साल की लकड़ी से बना सात चबूतरे थे, जिसके सहारे
लगभग तीस पदों वाली सीढ़ीयां बनी थी . ये सीढ़ीयां
लग्बह्ग ३३ फीट चौराई व् दस फुटगहराई वाली एक नहर तक पहुँचती थी जो सों नदी
से मिली हई थी. विभिन्न विद्वानों ने इसका वर्णन अशोक का महल, मौर्य राजाओं का
सिंहासन कक्ष,रंगमहल , सभाकक्ष के रूप में किया है . लेकिन सर्वाधिक मान्यता के
अनुसार यह तीसरी शती इस्वी पूर्व अशोक के शासनकालमें पाटलिपुत्र में आयोजित
त्रितीय बौद्ध संगती हेतु निर्मित सभागार माना गया है .
रोगग्रस्त है आरोग्य विहार
कुम्हरार स्थित संग्रहालय में चौथी-
पांचवी इस्वी में निर्मित आरोग्य विहार , जिसका अर्थ चिकित्सालय या आज की बात करे तो आधुनिक अस्पताल का
भाग्नावशेष मिला हैं, इसकी पहचान एक अंडाकार टेराकोटा पर अंकित अभिलेख के आधार पर
की गयी है . ऐसा माना गया है की इसका
इस्तेमाल गुप्त काल के महँ चिकित्सक धन्वन्तरी के द्वारा किया जाता था .उत्त्खनन
से प्राप्त पुरासामग्री में ताम्बे के सिक्के, आभूषण, अंजन- शालका, विभिन्न प्रकार
के पत्थरों व् पकी मिट्टी के मनके, हाथी दांत व् मिटटी के बने पासे. मुद्राएँ व्
मुद्रांकन , पहियेदार खिलौने, मिटटी के बने मानव, पक्षी , व् पशु की आकृति प्रमुख
हैं, जल क्षरण से बचने के लिए तथा दर्शकों के अवलोकन के कारन वर्तमान स्टार का
उन्नयन तो कर दिया है लेकिन इसकी साफ़ सफयी का कोई विशेष धयन नहीं रहा गया है . इन
कक्षों में घास और कचरे का साम्राज्य है और लोग आ कर इन्ही पर बैठते है . जभी
प्राचीन धरोहर को बचने के लिए विशेष प्रयाश किये जाने चाहिए ,
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